Jawaharlal Nehru’s Military Policy | क्या नेहरू ने अपनी सेना को धोखा दिया?
भारतीय सैन्य नीति: आजादी के बाद की स्थिति | Jawaharlal Nehru’s Military Policy
आजादी के बाद भारत की रक्षा नीति और सैन्य तैयारियों का मसला महत्वपूर्ण हो गया। भारत, जो एक नवगठित स्वतंत्र राष्ट्र था, उसे अपने अस्तित्व और सुरक्षा के लिए एक सशक्त सेना की आवश्यकता थी।
लेखक शिव कुणाल वर्मा की किताब में यह बताया गया है कि भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में केवल दो नेता थे जो सैन्य ताकत को ‘स्टेटक्राफ्ट’ के एक महत्वपूर्ण टूल के रूप में समझते थे—नेताजी सुभाष चंद्र बोस और सरदार वल्लभ भाई पटेल।
- नेताजी सुभाष चंद्र बोस: 1939 में कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव के बाद उन्हें गांधीजी ने हास्य पर धकेल दिया। इसके बाद उन्हें मजबूरन पार्टी छोड़नी पड़ी और फॉरवर्ड ब्लॉक नाम की अपनी अलग पार्टी बनानी पड़ी।
- सरदार वल्लभ भाई पटेल: 1950 में सरदार पटेल के निधन के बाद भारतीय राजनीति में ऐसा कोई नेता नहीं बचा जो रक्षा नीति को गहराई से समझ सके और सही दिशा में मार्गदर्शन कर सके।
सरदार पटेल के निधन के बाद जवाहरलाल नेहरू ने प्रधानमंत्री का पद संभाला। उनकी सोच और नीतियां पंचशील और गुट निरपेक्षता पर आधारित थीं, लेकिन सेना और रक्षा नीति के मामले में उनकी सोच में स्पष्टता की कमी थी।
नेहरू और भारतीय रक्षा नीति | Jawaharlal Nehru’s Military Policy
जवाहरलाल नेहरू, जो आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री बने, उनकी सोच में सैन्य नीति को लेकर एक उदासीनता थी। नेहरू का मानना था कि भारत को किसी भी प्रकार के सैन्य खतरे का सामना नहीं करना पड़ेगा और इसलिए सैन्य तैयारी की कोई आवश्यकता नहीं है।
नेहरू के विचार: “भारत को कोई सैन्य खतरा नहीं है”
1928 में नेहरू का बयान:
“मुझे नहीं लगता कि भारत को किसी ओर से दुनिया में किसी भी तरफ से कोई सैन्य खतरा है। इसलिए, जो है, भारत को सैन्य तैयारी की जरूरत नहीं है।”
यह वक्तव्य दर्शाता है कि नेहरू का विश्वास सैन्य मामलों में कितना कमजोर था। उनके इस बयान का खंडन तब हुआ जब 1947 में जम्मू-कश्मीर में भारतीय सेना को भेजा गया, और नेहरू को अपने शब्दों पर पुनर्विचार करना पड़ा।
- जम्मू-कश्मीर संकट (1947): नेहरू के शासन के दौरान, भारत को कश्मीर मुद्दे पर गंभीर चुनौती का सामना करना पड़ा। भारतीय सेना ने जम्मू-कश्मीर को बचाने की पूरी कोशिश की, लेकिन नेहरू की सोच में सैन्य नीति और तैयारी को लेकर स्पष्टता की कमी थी।
नेहरू का मानना था कि पंचशील और गुट निरपेक्षता जैसी नीतियों से भारत को सुरक्षित रखा जा सकता है, जबकि हकीकत में यह सोच सैन्य तैयारियों के लिए हानिकारक साबित हुई।
नेहरू की नीतियों का प्रभाव
नेहरू की नीतियों का प्रत्यक्ष प्रभाव भारतीय सेना की तैयारियों और सैन्य क्षमता पर पड़ा। उन्होंने रक्षा नीति के प्रति अपनी उदासीनता को बार-बार प्रदर्शित किया।
- सरदार पटेल की चेतावनी: 1950 में, सरदार पटेल ने नेहरू को चीन के खतरे के प्रति सचेत किया था। उन्होंने कहा था कि “चीन धोखा देगा”। लेकिन नेहरू ने इस चेतावनी को गंभीरता से नहीं लिया।
- चीनी आक्रमण और नेहरू की नीतियों का परिणाम (1962): 1950 में, चीन ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया, और भारत के पास पर्याप्त सैन्य तैयारी का अभाव था। 1962 के भारत-चीन युद्ध में, भारतीय सेना की तैयारी की कमी स्पष्ट रूप से देखी गई।
टेबल: नेहरू के शासनकाल में प्रमुख घटनाएँ और उनके प्रभाव | Jawaharlal Nehru’s Military Policy
वर्ष | घटना | नेहरू की प्रतिक्रिया | परिणाम |
---|---|---|---|
1947 | जम्मू-कश्मीर संकट | सैन्य हस्तक्षेप, लेकिन तैयारियों में कमी | क्षेत्रीय विवाद और संघर्ष |
1950 | चीन का तिब्बत पर कब्जा | सैन्य तैयारी की अनदेखी, पंचशील नीति | चीन से भविष्य में आक्रमण की आशंका |
1962 | भारत-चीन युद्ध | सैनिकों की अपर्याप्त तैयारी, रक्षा नीतियों की कमजोरी | युद्ध में हार |
सेना और नेहरू: एक टकराव की कहानी | Jawaharlal Nehru’s Military Policy
रॉब लॉकहर्ट का प्रस्ताव और नेहरू का जवाब:
1950 में, भारतीय सेना के पहले कमांडर-इन-चीफ सर रॉब लॉकहर्ट जवाहरलाल नेहरू के पास एक प्रस्ताव लेकर गए, जिसमें यह लिखा था कि भारत की रक्षा नीति क्या होनी चाहिए। नेहरू का जवाब था, “रबिश, टोटल रबिश। हमें डिफेंस पॉलिसी की कोई जरूरत नहीं है। हम अहिंसा में विश्वास करते हैं।”
यह जवाब बताता है कि नेहरू की सोच में सैन्य तैयारियों के प्रति कितनी उदासीनता थी। उनकी नीतियों के चलते भारतीय सेना को उस समय की आवश्यकताओं के अनुसार पर्याप्त तैयारियाँ नहीं मिल पाईं।
जनरल थिमैया की नाराजगी
1950 के दशक के अंत में, जनरल के.एस. थिमैया, जो भारतीय सेना के प्रमुख बने, उन्होंने सेना की तैयारियों को लेकर अपनी नाराजगी जाहिर की। उन्होंने देखा कि सेना में आधिकारिक स्तर पर कमियां थीं, और इसके पीछे प्रमुख कारण नेहरू की रक्षा नीति थी।
- वी.के. कृष्ण मेनन का रक्षा मंत्री बनना:
जनरल थिमैया के पद संभालने से ठीक पहले, नेहरू ने कैलाशनाथ काटजू को हटाकर अपने मित्र वी.के. कृष्ण मेनन को रक्षा मंत्री बना दिया। यह फैसला सेना में और अधिक असंतोष पैदा करने वाला साबित हुआ। - सेना में ब्यूरोक्रेसी का दखल:
सेना के मामलों में नौकरशाही का हस्तक्षेप बढ़ता गया। आईएएस अधिकारी सेना की तैयारियों, जरूरतों, और तकनीकी आवश्यकताओं के बारे में निर्णय लेने लगे, जिनके पास सैन्य अनुभव का अभाव था।
सेना में अधिकारियों की संख्या में कमी
नेहरू के शासनकाल में, सेना में अधिकारियों की संख्या में धीरे-धीरे कमी की गई। इसके कारण सेना की तैयारियों में और भी अधिक गिरावट आई।
- ब्यूरोक्रेसी का बढ़ता प्रभाव:
सेना में ब्यूरोक्रेट्स का दखल और बढ़ता गया। जिन अधिकारियों को सेना की आवश्यकताओं और उसकी तैयारियों की गहरी जानकारी थी, उन्हें दरकिनार कर दिया गया।
उद्धरण: “हमें डिफेंस पॉलिसी की कोई जरूरत ही नहीं है। हम अहिंसा में विश्वास करते हैं।” – जवाहरलाल नेहरू
नेहरू और सेना के बीच दरार | Jawaharlal Nehru’s Military Policy
जवाहरलाल नेहरू और सेना के बीच की यह दरार उस समय और भी गहरी हो गई जब जनरल थिमैया ने खुलकर नेहरू की नीतियों की आलोचना की।
जनरल थिमैया और नेहरू का टकराव
- नेहरू का विश्वास: नेहरू का विश्वास पंचशील और गुट निरपेक्षता की नीति में था, जबकि जनरल थिमैया का मानना था कि भारत को अपनी सैन्य तैयारियों पर ध्यान देना चाहिए।
- चीन का खतरा: जनरल थिमैया ने बार-बार चीन से आने वाले खतरे की चेतावनी दी, लेकिन नेहरू ने इसे अनदेखा किया।
उद्धरण: “चीन धोखा देगा।” – सरदार वल्लभ भाई पटेल
नेहरू की सोच का प्रभाव
नेहरू की रक्षा नीति और सेना के प्रति उदासीनता का परिणाम यह हुआ कि 1962 के भारत-चीन युद्ध में भारत को करारी हार का सामना करना पड़ा। भारतीय सेना के पास न तो पर्याप्त हथियार थे, न ही तैयारी।
भारतीय सेना की कमजोरी: 1962 का युद्ध | Jawaharlal Nehru’s Military Policy
1962 में चीन के साथ युद्ध ने भारतीय सेना की कमजोरियों को उजागर किया। यह युद्ध नेहरू की नीतियों की असफलता का प्रतीक बना।
- युद्ध का कारण:
1950 में चीन ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया, और भारत ने अपनी सीमाओं पर किसी भी प्रकार की सैन्य तैयारी नहीं की थी। - नेहरू की प्रतिक्रिया:
नेहरू ने चीन के साथ शांति की उम्मीद की थी, जबकि वास्तविकता में चीन ने भारत पर हमला कर दिया। - युद्ध का परिणाम:
1962 का युद्ध भारत के लिए एक शर्मनाक हार थी।
नेहरू की नीतियों की समीक्षा | Jawaharlal Nehru’s Military Policy
नेहरू की नीतियों की समीक्षा करते हुए यह स्पष्ट होता है कि उनके फैसले सेना के लिए लाभकारी नहीं थे।
- पंचशील नीति:
नेहरू की पंचशील नीति एक तरफा थी। भारत ने चीन के साथ शांति और दोस्ती की कोशिश की, लेकिन चीन ने इसका फायदा उठाया। - गुट निरपेक्षता:
नेहरू की गुट निरपेक्षता की नीति भारत को वैश्विक मंच पर कमजोर कर गई।
टेबल: नेहरू की नीतियों की समीक्षा | Jawaharlal Nehru’s Military Policy
नीति | सकारात्मक प्रभाव | नकारात्मक प्रभाव |
---|---|---|
पंचशील | शांति और दोस्ती की उम्मीद | चीन का आक्रमण, भारत की कमजोर सैन्य स्थिति |
गुट निरपेक्षता | वैश्विक नेतृत्व का दावा | सैन्य तैयारी की अनदेखी, अंतरराष्ट्रीय मंच पर कमजोरी |
नेहरू और भारतीय सेना: एक असहमति की कहानी | Jawaharlal Nehru’s Military Policy
जवाहरलाल नेहरू और भारतीय सेना के बीच के इस टकराव की कहानी भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय है। यह कहानी न केवल भारतीय सेना की स्थिति को दर्शाती है, बल्कि यह भी बताती है कि कैसे एक प्रधानमंत्री अपने ही सेना प्रमुख से भयभीत था।
नेहरू और जनरल करियप्पा
जनरल करियप्पा, जो 1950 में भारतीय सेना के पहले भारतीय कमांडर-इन-चीफ बने, ने भी नेहरू को चेतावनी दी थी कि भारतीय सेना की तैयारी चीन के मुकाबले पर्याप्त नहीं है।
- जनरल करियप्पा का सुझाव:
“भारतीय सेना की तैयारी को मजबूत किया जाना चाहिए।”
लेकिन नेहरू ने इस सुझाव को अनसुना कर दिया और सेना के कैडर को कम कर दिया।
उद्धरण: “सेना की तैयारी को मजबूत करना होगा।” – जनरल करियप्पा
नेहरू की नीतियों के दीर्घकालिक प्रभाव | Jawaharlal Nehru’s Military Policy
नेहरू की नीतियों के दीर्घकालिक प्रभाव भारतीय रक्षा नीति और सैन्य तैयारियों पर स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं।
- सेना की कमजोरी:
नेहरू के शासनकाल में भारतीय सेना की तैयारी में कमी आई, जिससे 1962 के युद्ध में हार का सामना करना पड़ा। - ब्यूरोक्रेसी का बढ़ता हस्तक्षेप:
सेना में नौकरशाही का हस्तक्षेप बढ़ता गया, जिससे सेना की कार्यकुशलता प्रभावित हुई।
निष्कर्ष: नेहरू, सेना और भारतीय सुरक्षा
इस पूरी चर्चा से यह स्पष्ट होता है कि नेहरू की नीतियों ने भारतीय सेना की तैयारियों पर नकारात्मक प्रभाव डाला।
- नेहरू की सोच और नीतियां: उनके पंचशील और गुट निरपेक्षता पर आधारित थीं, लेकिन उन्होंने सैन्य तैयारियों की अनदेखी की।
- सेना के प्रति उदासीनता: नेहरू का रक्षा नीति के प्रति दृष्टिकोण भारतीय सुरक्षा के लिए हानिकारक साबित हुआ।
यह जानकारी हमें इतिहास की एक महत्वपूर्ण कड़ी से जोड़ती है और दर्शाती है कि कैसे नेताओं की सोच और निर्णय सैन्य तैयारियों को प्रभावित कर सकते हैं।
उम्मीद है कि यह विश्लेषण आपके लिए उपयोगी साबित होगा। आपके सवाल और टिप्पणियों का स्वागत है।
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